अभी जुमा जुमा, आठ दिन! दिनेश की यह दूसरी किताब है टोटल। मगर इन आठ दिनों में ही व्यंग्य के कितने सोपान लांघ गए। धार और मीठी-मीठी चुभन कितनी पैनी कर डाली…इलाही तौबा! इनकी पहली किताब मैंने पढ़ी थी, तभी लगा था कि हाँ, कुछ बात है। यह सिपाही भी व्यंग्य का नेपोलियन बन सकता है। बस सीने में आग और कलम की नोक पर ओस की भीनी सी ठंडक चाहिए। व्यंग्य के नाम पर भाले-बरछे का मैं कायल नहीं। सधी हुई चुटकी चाहिए जैसे भाषा की प्लेट पर चाट मसाला छिड़का जाता है।
हाँ, यह तय है कि भाषा और शैली के मामले में दिनेश उसी स्कूल के नए भर्ती छात्र हैं, जहाँ से मैंने पास किया। यानी सरल, रोजमर्रा की बतकही। कहीं कोई भारीपन नहीं। शब्दों का एक थान खोल दिया तो सरसराता खुलता चला गया। आप ही खरीद कर पढ़ लो तो लगेगा जैसे पीड़ा, अभाव, दिक्कतें सब आपकी हैं, शब्द दिनेश के हैं। यही सहला, सहला कर चपतियाने वाला व्यंग्य है, चाहे शरद, श्रीलाल शुक्ल, त्यागी, केपी ने लिखा हो या दिनेश ने। अलबत्ता उम्र की सकंदी और तजुर्बे की पुख्तगी तो मायने रखती ही है। अल्ला रखे, यह होनहार नौजवान भी एक दिन व्यंग्य का दादा-नाना बन जाएगा। बस यही है कि लगे रहो मुन्ना भाई।
प्रस्तुत संग्रह की सभी रचनाएं अखबार में कॉलम के रूप में छपी हैं। हर कदम पर रोजमर्रा का दुःख दर्द और राह के रोड़े। लोगों ने इन्हें खूब खूब सराहा है। पर बिखरे हुए मोतियों में वह आबो ताब कहाँ जो एक पिरोई हुई माला में है। आप पढ़ो! मेरी गारंटी है कि मन रमता चला जाएगा, चुभन का एहसास होगा और एक नए प्रतिभाशाली व्यंग्यकार के कदम मजबूत होंगे। ज्यादा कहूँ तो कहोगे कि साहित्य में भी राजनीति जैसे ओछे गठबंधन होने लगे।
शुभम करोति कल्याणम। मेरी मंगलकामना भी आशीष भी। बचपन में नया कपड़ा पहनते थे तो दादी आशीष देती थीं-यह फटे, और बने। मेरा भी यही कहना है-यह छपे, दूसरी तैयार हो।
शुभाकांक्षी
केपी सक्सेना-पद्मश्री
20/5, इंदिरानगर-226016
19-01-07
मेरे और मुझ जैसे बहुत लोगों के लिए आदरणीय, केपी सक्सेना सर ने व्यंग्य की मेरी एक किताब के लिए यह भूमिका लिखी थी। ये सभी रचनाएं अखबार में कॉलम के रूप में छपी थीं| जनवरी 2007 से आज तक यह किताब प्रकाशित नहीं हो पाई। मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया फिर भी। अभी भी देश के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक के पास बीते सात वर्ष से इसकी स्क्रिप्ट पड़ी हुई है। उन्होंने मना किया नहीं है और छाप के दिया नहीं है। इससे पूर्व एक और बड़े प्रकाशक इस किताब को लेकर गए। दो साल बाद प्रूफ भेजा और फिर दो साल तक नहीं छापा तो मैंने उनसे वापस माँग लिया। उन्होंने खुशी खुशी लौटा भी दिया एक शिकायती पत्र के साथ। अब जहाँ है, कब छपेगी, मुझे नहीं पता।
बीती रात कुछ कागजात की तलाश करते समय जब आदरणीय केपी सक्सेना सर के हाथ से लिखी भूमिका मिली तो मेरे सामने पूरा मंजर आ गया। वे फ़िल्म जोधा अकबर लिख कर मुक्त ही हुए थे और मैंने भूमिका लिखने का अनुरोध कर लिया। फाइल दी तो बोले एक-एक पीस पढ़ा है। तुम बढ़िया लिख रहे हो। जाओ। कल भूमिका तुम्हारे घर पहुँच जाएगी। वैसे ही हुआ, जैसा सर ने कहा था। लिफ़ाफ़ा खोलकर पढ़ रहा था तो आँखों में आँसू आ गए। मेरे लिए गौरव की बात थी। सर ने मेरे जैसे मामूली आदमी की तुलना व्यंग्य के देश के बड़े महारथियों से जो कर दी थी।
जब सक्सेना सर बीमार थे, तब मैं कानपुर में हिंदुस्तान अखबार का एडिटर था। उस समय भी मैंने प्रकाशक महोदय से सिफारिश की लेकिन बात नहीं बनी। मुझे बहुत अफसोस हुआ जब सर के दुनिया से विदा लेने की जानकारी मिली। उनके सामने आकर भी क्या कहता, वे कहाँ मेरे कान उमेठने के लिए मौजूद थे| हम सबको छोड़कर चिर निद्रा में थे| चरण छूकर माफ़ी माँगी और वापस हो लिया। बहुत तकलीफ़ हुई थी, उस दिन। मैंने तय किया कि व्यंग्य नहीं लिखूँगा लेकिन मेरे बेटे उदित ने मुझे चार दिन पहले प्रेरित किया। उसने कहा कि किताब नहीं छप पाई तो क्या हुआ? आप अपनी एक लेखन शैली क्यों समाप्त कर रहे हो? आपको सक्सेना सर के पैमाने पर खरा उतरना है। उनके लिए लिखना है। शुक्रिया बच्चे।
मैंने तय किया है कि व्यंग्य के सभी पीस मैं फिलहाल अपनी वेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन पर उपलब्ध करा दूँ। यह सक्सेना सर के लिए मेरी विनम्र श्रद्धांजलि होगी। मैं नकारा किताब तो दे नहीं पाया। मेरा प्रयास होगा कि सप्ताह में कम से दो पीस दे सकूँ। आप सबका मार्गदर्शन, शुभकामनाएं चाहिए। आप पढेंगे, प्रतिक्रियाएं देंगे तो मुझे ख़ुशी मिलेगी|