देश में बेरोजगारी के शोर के बीच एक बहुत ही रोचक लेकिन निराश करने वाला तथ्य सामने आया| हाल ही में मेरी मुलाकात प्लेसमेंट की एक बड़ी एजेंसी के मुखिया से हुई| यह एजेंसी देश भर के विश्वविद्यालयों और नौकरी देने वाली कंपनियों के बीच सेतु का काम करती है| जो जानकारी उन्होंने दी, उससे कम से कम मैं हैरान रह गया| उनके मुताबिक दो सौ रिक्त पदों के लिए उनके प्लेटफॉर्म पर कई बार बमुश्किल एक हजार इंजीनियरिंग / मैनेजमेंट के छात्र ही खुद को रजिस्टर करते हैं तो परीक्षा के लिए पहुँचते हैं सिर्फ बीस फीसद यानी सिर्फ दो सौ ही| सहज समझा जा सकता है कि दो सौ ही आए हैं तो तय है कि सबका सेलेक्शन नहीं होने वाला| संभव है कि इनमें से 20-25 सेलेक्ट हो जाएँ|
मेरा अगला सवाल यह था कि युवा ऐसा क्यों कर रहा है तो उन्होंने जानकारी दी कि सबसे बड़ी बात यह है कि युवा अब अपने कॉलेज के ही भरोसे बैठा है| वह मानता है कि जब कॉलेज में एडमिशन ले लिया है तो नौकरी उसकी जिम्मेदारी हुई| उसका गोल भी तय नहीं है| करियर को लेकर क्लियरटी नहीं है| एप्रोच बहुत कजुअल है| और सबसे बड़ी बात मोटिवेशन की भारी कमी है| महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कमियों को वह स्वीकार भी नहीं करता| हाँ, वह गूगल के नीचे सोचता नहीं और मेहनत कॉल सेंटर जितनी भी नहीं करना चाहता| यही सबसे बड़ी मुश्किल है| मेरी नजर में यह निराशाजनक स्थिति है| क्योंकि देश में शोर है कि नौकरियां नहीं हैं| संभव है कि यह शोर सरकारी नौकरियों के लिए हो लेकिन अब तो सरकारी और प्राइवेट में कोई बहुत ज्यादा फर्क रहा नहीं| पेंशन ज्यादातर सरकारी नौकारियों में ख़त्म है| सिविल सर्विसेज और सेना को छोड़कर अब पेंशन शायद ही कहीं बची हो| बाकी सुविधाएं निजी कम्पनियाँ भी दे ही देती हैं| रूप भले ही कुछ और हो लेकिन मेडिकल सुरक्षा, पीएफ के साथ ही अन्य ढेरों सुविधाएं निजी कम्पनियाँ अपने अधिकारियों-कर्मचारियों को दे ही रही हैं| फिर यह संकट क्यों खड़ा है? यह अपने में बड़ा सवाल है|
मैंने इस मसले को समझने की दिशा में थोड़ा और प्रयास किया| कुछ चौंकाने वाली बातें और सामने आईं| हैकर रैंक वेबसाइट की रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में जावा स्क्रिप्ट जानने वालों लोगों की माँग 48 फ़ीसदी है जबकि उपलब्धता सिर्फ 42 फ़ीसदी की है| अपने देश में यही आँकड़ा क्रमशः 43.8 और 37.2 है| अमेरिका में यही जावा स्क्रिप्ट जानने वालों की जरुरत 45.1 फ़ीसदी है और उपलब्धता है 53.7 की| मायने एकदम उलट तस्वीर| मतलब वहाँ माँग कम है और आपूर्ति ज्यादा है और अपने यहाँ माँग ज्यादा है और आपूर्ति बहुत कम है| फिर हम यह कहने का हक़ खो देते हैं कि हमारे बच्चों को नौकरियाँ नहीं मिलतीं|
माँग के विपरीत कई विवि के कोर्स में जावा स्क्रिप्ट शामिल ही नहीं है| अब यह अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि जमाने की जरूरत के हिसाब से हमारे विश्वविद्यालय कोर्स ही नहीं डिजायन कर रहे हैं| या यूँ कहें कि समय-समय पर खुद को अपडेट नहीं कर रहे हैं| देश और देश की युवा पीढ़ी के लिए यह बहुत ख़राब सीन है| मुझे तो सिर्फ यह लगता है कि इंडस्ट्री से तालमेल बनाते हुए अगर कोर्स भी डिजायन किए जाएँ तो युवा नौकरियां भी पाएगा और देश में ही रहेगा भी| अवसर उपलब्ध करवाना देश की जिम्मेदारी है| उसके लिए सभी शैक्षिक संस्थानों को समय-समय पर अपने कोर्स को इंडस्ट्री से मैप करने की प्रेक्टिस करनी होगी| अन्यथा प्लेसमेंट एजेंसियां हों या कम्पनियाँ, कोई कुछ नहीं कर पाएँगे| कूड़ा उठाने के इरादे से न तो कोई कंपनी किसी कॉलेज में जाती है न ही कोई प्लेसमेंट एजेंसी ऐसी जगहों को अपनी प्राथमिकता में रखती हैं|
स्थिति निराशाजनक है लेकिन काबू से बाहर अभी भी नहीं है| यह देश नौजवानों का है| जो ठान लेता है, कर दिखाता है| 19 वर्ष के खुदीराम बोस हों या 27 वर्ष के भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल हों या चन्द्रशेखर| हमारी ये सभी विभूतियाँ गवाह हैं इस बात की कि इस देश के युवा ने जो ठान लिया वह कर दिखाएगा| मैं तो यही कहूँगा कि पहले जो नौकरियां हैं, उन्हें पकड़ लो| अगर आपने किसी भी नौकरी में रूचि दिखाई है| फॉर्म भरा है तो आपको जाना ही चाहिए| 80 फीसदी का न जाना, निराश करने वाला है| इससे देश की बदनामी होती है और आपके घर-परिवार के लोगों की चिंता भी बढाती है| अगर आप इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट के विद्यार्थी हैं तो निराश न हों| नौकरियां हैं| बस आपको सही दिशा में प्रयास करते हुए उन तक पहुंचना है| और जो ज्ञान आपको कॉलेज से नहीं मिल रहा है उसे बाजार से हासिल करिए अपने उज्जवल भविष्य के लिए, परिवार के लिए| इसी में सबकी भलाई है| देश की भी| आमीन!